[१४] ईसा पतरस के घर में आया। वहाँ उसने पतरस की सास को बिस्तर पर पड़े देखा। उसे बुख़ार था। [१५] उसने उसका हाथ छू लिया तो बुख़ार उतर गया और वह उठकर उस की ख़िदमत करने लगी।
[१६] शाम हुई तो बदरूहों की गिरिफ़्त में पड़े बहुत-से लोगों को ईसा के पास लाया गया। उसने बदरूहों को हुक्म देकर निकाल दिया और तमाम मरीज़ों को शफ़ा दी। [१७] यों यसायाह नबी की यह पेशगोई पूरी हुई कि “उसने हमारी कमज़ोरियाँ ले लीं और हमारी बीमारियाँ उठा लीं।”
[१८] जब ईसा ने अपने गिर्द बड़ा हुजूम देखा तो उसने शागिर्दों को झील पार करने का हुक्म दिया। [१९] रवाना होने से पहले शरीअत का एक आलिम उसके पास आकर कहने लगा, “उस्ताद, जहाँ भी आप जाएंगे मैं आपके पीछे चलता रहूँगा।”
[२०] ईसा ने जवाब दिया, “लोमड़ियाँ अपने भटों में और परिंदे अपने घोंसलों में आराम कर सकते हैं, लेकिन इब्ने-आदम के पास सर रखकर आराम करने की कोई जगह नहीं।”
[२१] किसी और शागिर्द ने उससे कहा, “ख़ुदावंद, मुझे पहले जाकर अपने बाप को दफ़न करने की इजाज़त दें।”
[२२] लेकिन ईसा ने उसे बताया, “मेरे पीछे हो ले और मुरदों को अपने मुरदे दफ़न करने दे।”
[२३] फिर वह कश्ती पर सवार हुआ और उसके पीछे उसके शागिर्द भी। [२४] अचानक झील पर सख़्त आँधी चलने लगी और कश्ती लहरों में डूबने लगी। लेकिन ईसा सो रहा था। [२५] शागिर्द उसके पास गए और उसे जगाकर कहने लगे, “ख़ुदावंद, हमें बचा, हम तबाह हो रहे हैं!”
[२६] उसने जवाब दिया, “ऐ कमएतक़ादो! घबराते क्यों हो?” खड़े होकर उसने आँधी और मौजों को डाँटा तो लहरें बिलकुल साकित हो गईं। [२७] शागिर्द हैरान होकर कहने लगे, “यह किस क़िस्म का शख़्स है? हवा और झील भी उसका हुक्म मानती हैं।”
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